शनिवार, 22 सितंबर 2012

फूटकर रोया बहुत



जिंदगी  अरमानो  की किताब  बना ली  थी  उसने 
और  आज  पढने  बैठा  तो  फूटकर  रोया  बहुत …
मिटटी  के  ढेलो  से  लेकर  कागज  की   कश्ती  तक 
दिन  के  झमेलों  से  लेकर  रात  की  मस्ती  तक 
सब  कुछ  छोड़ा  था  उसने  उसको  पाने  के  लिए 
और  आज  वो  भी  न  मिली  तो  फूटकर  रोया  बहुत …
यूँ  तो  उसे  अच्छा  न  लगा  शहर   मेरा 
मेरी  बदनाम  गलियों  से दूर  तक  कोई  नाता  न  था 
उसको  बदनामी  मिली  जब  अपने  ही  घर  में 
आज  मेरी  डेहरी पे  आया   तो  फूटकर  रोया  बहुत …
तमाम  जिंदगी  उसने  रोकर  गुजार  दी 
सोचा  था  की  सब  इकठे  ही  हसेगा 
पर  इस  कदर  वो  आदतन  मजबूर  हो  गया 
की  आज  हसने  चला  तो  फूटकर  रोया  बहुत 
आखिरी  पन्ने  पे  उसे  राख  मिल  गयी 
जिंदगी  के  पन्नो  पे  अपनी  ही  लाश  मिल  गयी 
बंद  कर  दी  किताब  मूँद  ली  आखें 
पर  था  सोया  नहीं …आज  बहुत  दिनों  के  बाद 
 वो  फूटकर  रोया  नहीं …….
-प्रीती - 


शुक्रवार, 7 सितंबर 2012


....
किसका था कुसूर ,मै कुछ कह नहीं सकती
जिन्दा होकर पत्थर सी सब सह नहीं सकती
कुछ तो मुझको करना ही होगा
बिखरना  नहीं, अब  संभलना होगा ....

हर उस रंग को चुन बैठी जिनका मेरी
उजली तस्वीरों से कोई वास्ता न था ...
हर उस लकीर को पकड़ बैठी जिनका
मेरे हाथों में कहीं भी रास्ता  न था ...

हर उस रास्ते को ही चुन बैठी जिन पर
कभी ना जाने की खायी थी कसम ....
अपने  से कर बैठी थी दुश्मनी  और
गैरों से मांग रही थी  अपनापन .....


इस सोच ने ही जाने क्या-क्या कर डाला
चली थी मै बदलने दुनिया को  , ये देखो
इस दुनिया ने मुझको ही बदल डाला ......प्रीती



इस दिल को जाने किसकी जुस्तुजू हो बैठी
हम यूँ ही खड़े होकर हाथ मसलते रह गए
वो जाने क्या क्या हमसे कह रही थी
इशारों इशारों में , रास्ता रोक कर खड़ी  थी मेरा
इतने ख्वाब सजाये हुए थे , लाख डराया उसने
उन ख़्वाबों के टूट कर बिखरने का
पर ना जाने क्यूँ ये बावरा मन
कुछ सुनने को राजी न था



अपनी जिद को रंगत  देती हुई , खुद को बोतां  हुआ
लम्हों की तस्वीरों में ,बंजर धरती की जागीरों में